Saturday 9 May 2015

एक अजनवी


एक अजनवी वीरान इस शहर में 
पल दो पल जी लेने का बहाना ढूँढता है, तन्हाइयों का आलम छंट जाए दिल से जरा, इसलिए हर सूरत में दोस्ती का खजाना ढूंढता है. 

यादों के झरोखों से झांककर देखा गांवों की गलियों में गुज़री अतीत की रेखा, बहुमंजिली इमारत के बंद कमरे में बैठा आज भी वही पूराना घर का अंगना ढूंढता है. एक अजनवी वीरान इस शहर में पल दो पल जी लेने का बहाना ढूँढता है, 

वक्त की नज़ाकत को परख इस कदर बड़े हुए किसी ने गले लगाया कोई था झुकाने को अड़े हुए, भुला गिले शिकवे अब शब्दों का एक प्यारा संसार रचें, इसलिए कमरे के सूनेपन में भी कोई अफ़साना ढूंढता है. एक अजनवी वीरान इस शहर में पल दो पल जी लेने का बहाना ढूँढता है, 

kavita@Govind



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