Sunday 10 May 2015

अलबेलिया

गोविन्द�
Govind 

प्रीति आज ऑफिस से जल्दी लौट आई थी. आज उसकी वॉलीबाल टीम का
सी-ब्लॉक की टीम से मैच था. वैसे प्रीति पिताजी
को लाने के बाद लगातार खेल नहीं पा रही थी, पर सेटर के रोल में वह बहुत माहिर थी. सी-ब्लॉक की टीम भी जबरदस्त खेलती थी. प्रीति के बगैर खेलना उसकी टीम को रिस्की लग रहा था. प्लेयर्स चाहे कितने भी अच्छे क्यों न हो पर, एक अच्छे सेटर के बिना वे अपना अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकते थे. सभी ने मिन्नतें कर प्रीति को राजी किया था.
कोर्ट की दायीं ओर बनी सिमेंट की बैठक पर पिताजी को बैठाकर वह खुद खेलने चली गई. वहां लोगों की भीड़ जमा थी मैच देखने के लिए. आज मौसम भी कुछ सुहावना था. हल्के बादल आसमान में घिर आए थे. हवा कुछ नमी लिए मन्द-मन्द चल रहीं थी. माहौल कुछ कोलाहलपूर्ण बनता जा रहा था. रेफरी की सिटी के साथ खेल आरम्भ हो गया था. गुरुचरण कोर्ट के अंदर खिलाड़ियों को इधर – उधर भागता देख रह था. कभी उछालते बॉल को निहार रहा था तो कभी रेफरी के अनबुझ इशारों को. उसे न तो खेल और न ही वहां के लोगों की अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी भाषा ही पूरी तरह समझ में आ रही थी. उसे खेलों में बस कबड्डी और फुटबॉल की थोड़ी बहुत समझ थी.
बीच-बीच में लोगों के शोरगुल के साथ उनकी तालियां बजती. गुरुचरण की नज़र कोर्ट के अंदर खेल रही बेटी प्रीति पर टिकी हुई थी. वह बहुत खुश थी और बड़ी चपलता के साथ खेल रही थी. बीच- बीच में बाकी प्लेयर्स एक- दूसरे की हथेलियों पर थपकियां मार जाती. गुरुचरण भाव विभोर होकर सबकुछ देख रहा था. आज उसका मन बड़ा आनन्दित था. खेल जारी था. गुरुचरण की नज़र कोर्ट पर टिकी थी पर, मन पंछी उड़ कर जा बैठा पुरानी यादों की डाली पर......।
प्रीति उनकी सबसे छोटी बेटी थी. तीन बेटियों के बाद बेटे की चाह ने उससे क्या नहीं करवाया था। जोग जाप, मंदिर- मजार से लेकर गुरुद्वारे तक वे माथा टेक आए थे. दान-पुण्य भी खूब किया था, इसलिए नहीं कि स्वर्ग मिले, बल्कि इसलिए कि बस इस बार बेटा हो जाए. बेटा होने पर गांव में मंदिर बनवाने का ऐलान भी कर दिया था. बारह खस्सी काली मां, सात दुर्गे और नौ सूर्य को पहले ही कबूल चुका था, जैसे देवी-देवता बलि या मांसाहार न मिलने के कारण ही उससे नाराज चल रहे हों।
गांवभर में गर्भ लक्षण की विशारद मानी जाने वाली सुखिया चाची ने भी पूरी जांच पड़ताल कर भविष्यवाणी की थी- “गुरु ! इस बार तो पक्का बेटा होगा, सब लक्षण यही कहता है. देखो, बहू इसबार ज्यादा अलसाई है, समय भी ज़्यादा लग रहा है और मीठा खाने की भी खूब इच्छा होती है.” यही नहीं आगे बढ़कर उसने निर्मला के ढ़ोलकीनुमा उभरे पेट पर कान सटा दिए और बोली – ‘देखो ! अंदर बच्चे की उछल कूद भी ज़्यादा है, सब लक्षण बेटा का है’.
जब निर्मला पेट से थी वह उसे लेकर एक बार सदानन्द बाबा के पास भी गया था. उनका छोटा सा आश्रम था. जटाजूट सदानन्द बाबा की कीर्ति चारों दिशाओं में सूर्यकिरण की तरह फैली हुई थी. लोगों का मानना था कि उनके दर्शन से ही सारे मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं.
बाबा पद्मासन लगाए ध्यानमग्न थे. उनके सम्मुख जाकर दोनों विनीत भाव से हाथ जोड़कर बैठ गए. घंटों बाद बाबा का ध्यान पूर्ण हुआ. नेत्र खोलते ही वह पत्नी सहित साष्टांग हो गया. बाबा का हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठ गया था. प्रसन्नचित बाबा बोले – ‘वत्स ! तुम्हारी मनोकामना पूर्ण हो. तुम्हारी पत्नी की कोख में पल रहा अंश तुम्हारे जीवन का सहारा बनेगा’.
प्रीति का जन्म अस्पताल में हुआ था. अस्पताल के वार्ड नंबर 4 में निर्मला भर्ती थी. वह वार्ड के बाहर बने चबूतरे पर बैठा था. बीच - बीच में पत्नी की करुण चित्कार उसके कानों को भेदकर दिल पर वार कर जाती थी. बेचैनी बढ़ती जा रही थी. तभी अंदर से शिशु की क्यां...क्यां...क्यां..... की आवाज उसके कानों में पड़ी. मन भावविभोर हो उठा था. उसने परमपिता परमात्मा को मन ही मन नमन किया. तभी अंदर से आती हुई नर्स बोली, ‘बधाई हो, आपके घर लक्ष्मी आई है’.
पहले पहल तो उसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ. पर, माताजी का लटका मुंह देखकर वह खुद को और अधिक समय तक धोखे में नहीं रख सका. उसका धैर्य जवाब दे गया. उसने दोनों हाथों से अपना माथा पकड़ लिया. सारी मन्नतें, जोग-जाप, लक्षण, भविष्यवाणियाँ निष्फल साबित हुईं. उसे यह दुनिया छलिया लगने लगी थी. आशा के सूर्य को राहु ग्रस चुका था. जीवन में चिरकालीन अंधेरा व्याप गया, जहां रोशनी का प्रवेश असम्भव था. मन में जल रही आशा की लौ बुझ गई थी.
यह ख़बर गांवभर में आग की तरह फैल गई कि गुरचरणा के घर फिर से अलबेलिया (बिना खाद पानी के खुद उगने वाली एक प्रकार की झाड़ी) पैदा हुई है. शुभचिंतकों का मन आहत हुआ, बैरियों के दिलों को ठंडक मिली. लोग घर आकर दिलासा दे जाते. कुछ ज्ञान भरा उपदेश दे जाते, जैसे बहुत बड़े संत अथवा विद्वान हों. जब अपने बीते तब समझ में आए कि उपदेश देना कितना सरल है और उस पर चलना या निभाना कितना मुश्किल.
उसने गौर किया कि लोगों के व्यवहार में भी कुछ बदलाव आने लगा था. राह चलते वे उसे ऐसे देखते मानो उससे कोई बड़ा अपराध हुआ हो. गोतिए की गिद्ध दृष्टि तो उसकी सम्पति पर जम गई थी. गांव में रुतबा धीरे-धीरे जाता रहा. लोग उसपर धौंस जमाने लगे और जब तब नीचा दिखाने के फिराक में लगे रहते. गांवों में सबकी मानसिकता आज भी जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली है. पुत्रहीन को निरीह बनकर जीना पड़ता है क्योंकि उसके पीछे लाठी उठाने वाला कोई नहीं होता.
प्रीति बाकी बहनों से अधिक सुन्दर थी. लोग उसे बहुत पसन्द करते, पर गुरचरणा को वह फूटी आंख भी न सुहाती. उसे उसका चेहरा देखना तक पसन्द न था. वह प्रीति को अपने जीवन का सबसे बड़ा बोझ मान चुका था, जिसे ढो पाना मुश्किल-सा लगता.
समय कहां रुकता है? वह अपनी गति से चलता रहा. प्रीति डगडगाती हुई बड़ी हो रही थी पर, उसका मन पिताजी के लाड प्यार की एक बूंद के लिए भी तरस गया था. बाकि बहनों को तो खूब लाड प्यार मिलता पर, उसे देखते ही न जाने क्यों पिताजी का मन भारी बोझ तले दब जाता. उसने वजह की खोज तो की नहीं पर उसके दिल के किसी कोने में यह बात घर कर गई कि पिताजी उससे नफ़रत करते हैं.
उसने एक दिन मौसी को यह बात बताई तो उसने उसके जन्म की सारी दास्तान सुना दी. उसी दिन से उसने खुद को बदल लिया था. बेटा तो वह बन नहीं सकती थी, पर बेटों वाली जिम्मेदारियों को पूरा करने में उसने अपने-आपको झोंक दिया. उसने खुद को डुबो दिया पढ़ाई में. पढ़ाई ही एकमात्र साधन था, जिसके सहारे वह खुद को बेटों के बराबर साबित कर सकती थी.
एक दिन निर्मला खाना परोसकर सामने बैठी प्रीति के बालों को सहलाते हुए बोली थी – “सुनते हो जी ! कल प्रीति की स्कूल से मैडम आई थी. बोल गई छोटिया पढ़ाई में खूब माहिर है. आगे कुछ जरूर बनेगी.”
“हूंह... इस अलबेलिया को पढ़ाके क्या होगा ?” - उसने बड़ी बेरुखाई से जवाब दिया था.
प्रीति कातर दृष्टि से पिताजी को देख रही थी. हालांकि यह अविश्वास पहली मर्तबा नहीं प्रकट किया गया था. पिताजी के ऐसे कड़वे बोल सुनने की उसे लगभग आदत-सी हो गई थी, पर आज पता नहीं क्यों दिल फटा जा रहा था. उसकी आंखें डबडबा आईं. आंसू गालों से सरकते हुए ज़मीन पर ढरकने लगे थे.
गुरुचरणा ने दांत पीसते हुए कहा था – “रोती क्या हो ? बड़ी दुलारी बनती हो, हटो सामने से.”
वह दौड़कर कमरे में चली गई थी. बिस्तर में मुंह छिपाकर फूट- फूटकर रोई थी. बेटी थी इसलिए बगावत नही कर सकती थी. उसे पंख तो मिले थे पर उड़ने की आज़ादी नही मिली थी. वह युवावस्था के जोश और जुनुन से लबालब भरी थी. वह खूब पढ़ना चाहती थी, आगे बढ़ना चाहती थी और जीवन में कुछ बनकर मां-बाप का सहारा बनना चाहती थी. कुछ करने का जब्बा उसके दिल में कूट कूटकर भरा था. उसके निर्दोष सपने उम्मीदों के पंख फैलाकर असीम गगन में उड़ने को आतुर थे.  दसवीं का रिजल्ट आया तो उसका हौसला और बुलन्द हुआ. वह जिले भर में अव्वल आई थी.
उसे आज भी याद है, क्या बखेड़ा हुआ था कॉलेज के दिनों में दाखिला के समय. वह कॉलेज में दाखिला लेने के लिए अड़ी थी. खाना पीना भी त्याग दिया था उसने. उसका रो-रो कर बुरा हाल था. समाज सहित गांव भर इसके खिलाफ था. सब यही मानते थे कि बेटियां आखिर ज्यादा पढ़ लिख कर क्या करेंगी, आखिर हैं तो पराया धन ही जिन्हें दूसरे के घर ही तो बसना है. स्कूली शिक्षा पूरी हो गई, घर गृहस्थी का हिसाब-किताब तो आ ही जाएगा, बस कन्यादान कर पुण्य कमा लें. उनकी मानसिकता बस यहीं तक पहुँच पाती थी.  बेटियों के लिए एक सीमा रेखा खींच दी गई थी, जिसे तोड़ना असम्भव था. इसी सीमा रेखा ने न जाने कितनी बेटियों के अरमानों के पंख कुतर डाले थे और वे सिसक-सिसक कर जीने को मजबूर थीं.  घर आंगन के सीमित दायरे में रहकर जीना उनकी नियति बन गई थी.
कहते हैं बदलाव प्रकृति का नियम है, तो भला इसे कौन रोक सकता था. अन्न जल त्यागे आज प्रीति का चौथा दिन था. स्थिति नाज़ुक बनती जा रही थी. उसकी दशा दुर्दशा में बदल चुकी थी. शरीर सूख गया था. मुंह से आवाज़ भी निकल नहीं पा रही थी. आंखों से आंसू सूख चुके थे. वह देखने के लिए आने वाले लोगों को सूनी नज़रों से बस टुकुर- टुकुर निहारती. आशाओं के धूमिल होने के साथ जीवन के सूर्यास्त का दृश्य उसकी नजरों के सामने उभरने लगा. खबर मिलते ही अस्सी साल का भोला डंडा के सहारे आया था. अपना झुर्रीदार हाथ सर पर रखकर बोला – “बेटी और पढ़ोगी ?”उसने हामी में बस सर हिलाया था.“हमारी नाक कटाई तो ?”उसने ना में सर हिलाया था.भोला से उसकी दुर्दशा देखी नहीं गई. उसने हांक लगायी – “गुरचरणा ! बिटिया को कॉलेज में दाखिला दिला दो. ऐसे अन्न-जल त्याग कर मरने से भला है कि इसे अपने मन का कुछ करने दो.”
वह खुद जाकर कॉलेज में प्रीति का नामांकन करवा आया था. उसे कॉलेज की ओर से छात्रवृत्ति भी मिल गई थी और हॉस्टल में रहने का इंतजाम भी हो गया था.
लोगों के शोरगुल से उसकी तंद्रा भंग हो गई और वह वर्तमान में लौट आया. प्रीति की टीम मैच जीत चुकी थी. सभी प्लेयर्स ने उसे कंधे पर उठा लिया था.
आज सचमुच प्रीति उनके जीवन का सहारा बन चुकी थी. नौकरी लगते ही वह माता-पिता को अपने पास ले आई थी. वैसे गांव में भी उनका अब कुछ विशेष रहा भी नहीं था. तीन – तीन बेटियों को ब्याहते-ब्याहते वह दिवालिया हो चुका था और पुरखों की सारी सम्पति हवन हो चुकी थी. अभावों के मारे जीवन दुष्कर होता जा रहा था. दो जून की रोटियां जुटाना भी दूभर हो रहा था. ऐसी नाज़ुक स्थिति में उनकी बेटी प्रीति आज अलबेलिया नहीं बल्कि, एक जिम्मेदार संतान बनकर सामने आई थी. आज वह बेटा-बेटी के भेदभाव से बहुत ऊपर उठ चुकी थी. उसकी सफलता गांवभर में चर्चा का विषय बन चुकी थी और लोग अपनी बेटियों को फ़ख़्र के साथ प्रीति जैसी बनने की नसीहत देने लगे थे.
गुरुचरणा को आज सदानन्द बाबा का आशीर्वचन– ‘वत्स! तुम्हारी मनोकामना पूर्ण हो. तुम्हारी पत्नी की कोख में पल रहा अंश तुम्हारे जीवन का सहारा बनेगा’, पूरी तरह से सच जान पड़ा. प्रीति ने सचमुच उसकी मनोकामना पूरी कर दी थी. उसने देखा दूर आसमान में लालिमा और प्रखर हो उठी थी मानो वह भी प्रीति के जीवन में और रोशनी लाना चाहती हो.

समाप्त 
अलबेलिया
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