Saturday 4 July 2015

पश्चाताप के आंसू

पश्चाताप के आँसू
दीनानाथ चौधरी उर्फ डी एन चौधरी, रेलवे से रिटायर्ड जूनियर इंजीनियर मरणासन्न अवस्था में सरकारी हॉस्पीटल में पड़ा था. बीच-बीच में हिचकियों से उसका पूरा तन बदन उछल उठता था. डॉक्टर सलाइन पर सलाइन लटकाए जा रहा था. उसे अचानक दिल का दौरा पड़ा था ऐसा सब कोई मानता था पर, सच कुछ और था. दिल का दौरा उसे अचानक नहीं बल्कि आज का अखबार देखने के बाद पड़ा था. आज का अखबार उसके लिए कड़वे सच का बवंडर लेकर आया था, जिसकी उसने ना कभी कल्पना की थी और ना ही कल्पना करना उसके वश की बात थी. एक ही साथ दो-दो कड़वे सच.
आखिर ऐसा क्या छपा था आज के न्यूज पेपर में, जिसने जीते-जागते चीते की तरह दहाड़ने वाले, आधुनिकता के सिपाही की कमर तोड़ दी थी ? उसे बिस्तर पर लाकर पटक दिया था और उसे जिन्दगी और मौत के बीच का पेंडुलम बना कर रख दिया था. सच कड़वा होता है, पर आज का सच उसके लिए कड़वे से भी कुछ अधिक था. इस अवस्था में ऐसे सच का सामना करने की उसके पास हिम्मत शेष नहीं बची थी. जिन्दगी में आशा की एक ही किरण शेष थी, जो अब अस्ताचल में धीरे धीरे निस्तेज होकर विलीन होने के कगार पर आ चुकी थी.  
आज उसके दृष्टिपटल पर बार बार रघुवर शर्मा की छवि उभर कर आ रही थी. उनकी पुरानी कही बातें ना चाहते हुए भी बार-बार काले बादलों की तरह दिमाग में उमड़-घुमड़ रही थी. अचानक फिर उसकी हिचकी तेज हो गई। सभी ने मिलकर उसके हाथ पैर दबाए रखा। डॉक्टर स्टैथौस्कोप सीने पर लगाकर धड़कन की गति मापने लगा. कुछ देर में फिर वह शांत पड़ गया. केवल साँसें चल रही थी. वह निर्जीव बेजान सा पड़ा था. आज अस्पताल में भी उसके पास अपना कोई नहीं था. हार्टअटैक आने पर उसके लेण्डलॉर्ड ने झटपट लाकर उसे सरकारी हॉस्पीटल में एडमिट करा दिया था। उसने ऐसा इसलिए नहीं किया था कि उसका अपना कोई नहीं था या उसके साथ लैंडलॉर्ड की सहानुभूति थी, बल्कि इसलिए कि कुछ अनहोनी होने पर कानूनी दांव पेंच से बचा जा सके.     
बात आज से करीब 10 - 12 साल पहले की है. तब उसकी पोस्टिंग रांची में थी. धुर्वा रांची में किराए के मकान में रहता था. सामने वाला मकान रघुवर शर्मा का था. वह किराए पर नहीं रहता था. उसका अपना मकान था, अपने सिद्धांत थे और अपनी परम्परा थी. अपना संस्कार, अपनी संस्कृति थी. यानी सबकुछ अपना था. वह स्कूल भी अपना था, जिसका वह प्रिन्सिपल था. उसके बच्चे दो थे - बेटी संजना और बेटा मनभरन शर्मा, जिसे घर में प्यार से मनु कहकर बुलाया जाता था. पत्नी राधिका बड़ी संस्कारी एवं धर्मभीरु थी. हर वक्त पूजा पाठ में लगी रहती थी. चौबीस एकादशी बारह पूर्णिमा और ना जाने महीने में कितनी बार उपवास रखती थी. सारे देवी देवता उससे खुश रहते. तभी तो उस परिवार का जीवन सुखमय था. ना कोई आकस्मिक विपत्ति आयी थी और ना कोई बडी उलझन. जीवन की गाड़ी बड़े मजे में द्रुत गति से चल रही थी.
पर डी एन चौधरी की उस परिवार से कभी बनीं नहीं. दोनों के बीच कोई पुरानी दुश्मनी तो नहीं थी पर, दोनों की विचारधाराएं अलग अलग जरूर थी. डी एन चौधरी खुद को बड़ा मॉडर्न किस्म का इंसान समझता था एकदम लेटेस्ट वर्जन वाला. उसके पास कुछ भी अपना नहीं था. नाम था दीनानाथ चौधरी, पर उसे यह नाम बड़ा पुराने ज़माने का लगता. लेटेस्ट वर्जन वाली थॉट्स में यह नाम सटीक नहीं बैठ रहा था. इसीलिए उसने अपना नाम बदलकर डी एन चौधरी कर लिया था. एक बेटी थी सुनैना जिसका नाम बदल कर अब ‘ब्युटी’ हो गया था. पत्नी की आकस्मिक मौत हो चुकी थी (या मार दिया गया था) जो अब भी लोगों के बीच रहस्य का विषय था. अब पत्नी कहने को कोई अपनी थी नहीं. बस उसका जब मन बहुत मचलता तो एलिसा के पास से रिफ्रेश होकर लौट आता. एलिसा भी उन औरतों में से एक थी जिसे अलग-अलग मर्दों की बाहें प्यारी लगती थी. अपने पति से उसका अभी तक कानूनन तलाक तो नहीं हुआ था पर, म्युचुअल डायवर्स के साथ वह एक किराए के घर में अकेले रह रही थी. कई मर्दों के साथ उसके जिस्मानी संबंध थे. डी एन चौधरी के साथ उसका कुछ ज्यादा ही अटैचमेंट था. कई बार चौधरी ने लाइफ पार्टनर बनने तक का प्रस्ताव भी रख दिया था पर वह फिर एक ओर गलती करने के लिए तैयार नहीं थी. वह एक मर्द की बांदी बनकर नहीं रहना चाहती थी.
यहाँ डी एन चौधरी का सबकुछ बिल्कुल पराया था, सिवाय अपनी बेटी के. घर पराया था. शहर पराया था. नाम भी अब मॉडीफाई होकर पराया-सा बन गया था. संस्कार भी अपना नहीं रहा था या यूं कह लें उसे वह रखना ही नहीं चाहता था. अगर उसे वेस्टर्न कल्चर का कट्टर प्रचारक कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. पहनावे ले लेकर जुबान तक वेस्टर्न कल्चर के गाढ़े रंग में रंग चुका था. अपना धर्म, अपनी परम्परा, अपनी संस्कृति से उसे चिढ़ सी हो गयी थी. धर्म-कर्म सब उसकी नज़र में ढकोसले थे जो समाज को पीछे धकेलने वाले थे. धर्म-कर्म उसे लोगों की मानसिकता को संकुचित करने वाला लगता था. वह तो प्रगति पथ का रोड़ा था तो भला उसे वह अपने कंधों पर बोझ बनाकर क्यों ढोता ? 
सुबह-सुबह शर्मा जी के घर से आने वाली आरती की ध्वनि उसे गालियों सी लगती. कई बार वह मन ही मन सुबह की नींद खराब करने के लिए उसे गालियां भी दे चुका था. शर्मा जी को वह दकियानूसी सोच वाला पढ़ा-लिखा गंवार मानता था. उससे कहीं ज्यादा चिढ़  उसे तब होती जब शर्माजी संस्कारों की पगडंडी पर अपने बच्चों को चलने के लिए ट्रेण्ड करते. उन्हें रामायण, गीता के उपदेशों की कसौटी पर कसकर जीवन जीने का संदेश देते. हर कार्य नैतिकता की आग में तपाकर करने की नसीहत देते. जिम्मेदारियों के धागे में बांधकर उसे अपने मन मुताबिक चलाने का प्रयास करते.
डी एन चौधरी ने कई बार उन्हें अपने पास बुलाकर झाड़ भी पिलाई थी. वे कहा करते कि शर्मा जी आप अपने बच्चों की जिंदगी चौपट कर रहे हैं. उनका बचपन मार रहे हैं. उनकी आजादी छीन रहे हैं. उन्हें अपने जैसा बनाने का प्रयास मत करिये. उनके अपने विचार हैं. वे अपने तरीके से जीना जानते हैं. उनके अरमानों का कत्ल मत करिए. आप अपनी परंपरा, संस्कार, रीति-रिवाज उनपर जबरदस्ती थोपने की भूल मत करिए वर्ना एक दिन वह आपसे बगावत कर बैठेंगे.     
चौधरी की इन नसीहतों को सुनकर शर्माजी बस इतना ही कहते – “अपने परिवार को चलाने ले लिए मुझे आपकी नसीहत की जरूरत नहीं है. बेहतर इसी में है कि आप दूसरों के कॉलर छोड़कर अपना कॉलर ठीक कर लें.”
वैसे शर्माजी थे बड़े ही भले किस्म के इंसान. ना कभी किसी की बुराई के बारे में सोचते और ना ही किसी का बुरा करते. उन्होनें कई बार चौधरी जी को समझाने और सही राह दिखाने का प्रयास भी किया था. अपनी परम्परा का महत्व समझाया था. पर चौधरी भी था अपने किस्म का विरला इंसान था. विलायती ठाठ बाट का रंग उसपर ऐसा चढ़ा था कि उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था.
उसकी बेटी ब्युटी बड़ी हो रही थी. कॉलेज गोइंग गर्ल तो थी ही पर, अभी से ही उसे बार जाने की लत भी लग गई थी. लड़कों के साथ घूमना-फिरना तक तो ठीक था पर, देर रात लड़कों के साथ बार से शराब पीकर वापस आना, पिता की गैरहाजिरी में लड़कों को अपने घर बुलाना शर्मा जी को कुछ अच्छा नहीं लगता था. कहते हैं न कि एक सड़ी मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है. यही डर शर्मा जी को भी कभी-कभार परेशान करता था. आखिर उसके घर पर भी तो जवान बेटा – बेटी थे. भले ही उसने सुसंस्कारों की घुट्टी उन्हें गले तक भरकर पिलाई थी, पर ऐसा भी कोई गारंटी सर्टिफिकेट उसके पास नहीं था कि उसके बच्चों पर गलत संगत का असर बिल्कुल नहीं पड़ेगा.
एक दिन उसने चौधरी को आगाह किया – “देखिए, चौधरी जी ! ब्युटी को उतनी आज़ादी देना भी ठीक नहीं है. उसे बेलगाम मत होने दीजिए. वर्ना एक दिन पश्चाताप के अलावा और कुछ भी नहीं बचेगा आप के पास.”  
शर्माजी की इस बात पर चौधरी काफी भड़का था और खूब खरी-खोटी सुनाई थी. नेरो माइंडेड से लेकर अंग्रेजी की न जाने कितनी उल्टी-सीधी उपाधियां उसे दे डाली थी. बेचारे शर्मा भी चुपचाप सुनकर वहां से चले गए थे. उसी दिन से दोनों के बीच बोलचाल बंद हो गई थी. दोनों के बीच मानो ना टूटने वाली पत्थर की दीवार-सी खड़ी हो गई थी. इधर शर्मा जी अपनी दुनिया में व्यस्त हो गए और उधर चौधरी भी अपने जहान में मशरूप हो गया.  
शर्मा जी ने अपने बच्चों को आगे की पढ़ाई करने दिल्ली भेज दिया था और उधर चौधरी जी ने भी ब्युटी को मुम्बई भेज दिया था मॉडलिंग के लिए.
समय बीतता गया. शर्मा जी का सबकुछ अपना था. अपना घर, अपने सिद्धांत, अपनी परम्परा, अपना संस्कार. अपनी संस्कृति, अपना स्कूल. उसका सबकुछ अपना था इसीलिए वह अपने घर पर ही अपना बनकर रह गया. उधर चौधरी का कुछ समय बाद वहाँ से बनारस ट्रांसफर हो गया था. यहां भी उसका सबकुछ पराया था. पराया शहर, पराया मकान, पराए लोग, पराई दुनिया. सबकुछ पराया था इसीलिए वह कभी किसी का अपना नहीं हो सका.
आज के उस न्यूज पेपर से एक नहीं दो-दो तीर निकलकर उसके सीने में बेरहमी से आ घुसे थे. एक अपनी बेटी के साथ सीना तानकर खड़े शर्मा की न्यूज पेपर पर छपी तस्वीर और दूसरी पुलिस के गिरफ्त में काले स्कॉर्फ से मुंह ढ़के ब्युटी चौधरी की तस्वीर. दोनों ही तस्वीरें आज के न्यूज पेपर में छपी थीं. पर दोनों ही तस्वीरों के प्रतिबिंब में आकाश-जमीन का फर्क था. संजना का चेहरा गर्व से दीप्तिमान था तो उधर ब्युटी का चेहरा शर्म और ग्लानि से कालिमामय था. एक ने अपने कुल खानदान का नाम रौशन किया था तो दूसरी ने कलंकित.  
शर्मा जी आज फूले नहीं समा रहे थे. उनकी बेटी ने अखिल भारतीय सिविल सर्विस एग्जाम में टॉप 10 में जगह बनाकर अपने माता पिता का नाम रौशन कर दिया था. उसने सफलता की बुलंदियों को छूआ था. शर्मा जी के लिए इससे बढ़कर और खुशी की बात क्या हो सकती थी ? उनका सीना दो इंच और चौड़ा हो गया था. उनकी दिली तमन्ना पूरी हो गई थी.
उधर ब्युटी चौधरी सेक्स रैकेट चलाने के जुर्म में पुलिस के हत्थे चढ़ गई थी.
पुलिस ने खुलासा किया कि मुंबई जाकर उसने मॉडलिंग के लिए काफी संघर्ष किया और दर- दर की खाक छानती रही. पर मुंबई नगरी ठहरी माया की नगरी वह इतनी आसानी से किसी पर मेहरबान कहां होती है ? अंत में थक हार कर उसने जिस्मफरोशी का काम शुरू कर दिया था. उसने अपने पिताजी को भी अंधेरे में रखा था. वह हमेशा चौधरी को दिलासा देती रही कि बहुत जल्द मैं अपने मकसद में कामयाब हो जाऊंगी. पर कभी ना कभी तो उसका असली चेहरा दुनिया के सामने आना ही था. किंतु आज की इस घटना को एक संयोग ही कहा जा सकता है कि दोनों के कर्म का फल एक ही साथ दुनिया के सामने आया.
चौधरी ने एक बार फिर दम लगाकर उठने का प्रयास किया, पर आज उसे बेबसी के आलम ने इस प्रकार से जकड़ा था कि उससे मुक्त होना उसके लिए आसान नहीं था. उसे शर्मा जी की बात फिर याद हो आई -  “देखिए चौधरी जी ! ब्युटी को उतनी आज़ादी देना भी ठीक नहीं है. उसे बेलगाम मत होने दीजिए. वर्ना एक दिन पश्चाताप के अलावा और कुछ भी नहीं बचेगा आप के पास.”  
उसने पीने के लिए पानी मांगा. शर्मा जी की वह बात फिर याद हो आई - अपने परिवार को चलाने ले लिए मुझे आपकी नसीहत की जरूरत नहीं है. बेहतर इसी में है कि आप दूसरों का कॉलर छोड़कर अपना कॉलर ठीक कर लें.”
उसे शर्मा जी की बातों की सच्चाई का अहसास हो गया था. उसका मन ग्लानि से भर उठा. पश्चाताप के आंसू रह-रह कर गालों के नीचे ढुलक रहे थे और बिस्तर भींग रहा था. किंतु, अब कुछ नहीं किया जा सकता था. अब पछताय क्या होत जब चिड़ियां चुग गई खेत. अब सिर पीटने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं था. वेस्टर्न कल्चर की जिस स्वच्छंद फसल को उसने भारतीय जमीन पर उगाने का प्रयास किया था, वह यहां की मिट्टी में उग नहीं पाई, बल्कि मिट्टी में लोट पोट होकर अपना स्वत्व विलीन कर चुकी थी.  

समाप्त