Monday 18 May 2015

शिकवे शिकायत का झूठा इल्जाम,

शिकवे शिकायत का झूठा इल्जाम,
यू ओरो को मैं न कभी देता हूँ।
वक्त की नजाकत को देख बस,
खुद को ही बदल लेता हूँ।

जो आँखों से उतर के

जो आँखों से उतर के, दिल मे आए, मीत बन जाए,,
जिगर की टीस जब, होठों पे आए, गीत बन जाए,,
मुझे ना रोक पाओगे, कभी तुम गीत लिखने से,,
तुम्हारी याद मे जो भी लिखूं वो, गीत बन जाए,, !!

Friday 15 May 2015

शब्दों को चुन चुनकर

शब्दों को चुन चुनकर यू ही मैंने उसके हुस्न ए जलवे पर
एक मधुमय सा गीत लिख डाला।
तारीफ की मधुर चाहत लिए बैठा था दिलपर,
पर झूठा शायर कहके उसने मुझे बदनाम कर डाला।

Tuesday 12 May 2015

चेहरे की नूर



"चेहरे की नूर कभी बूझा के मत रखना,
अरमां दिल की दिल पे दबा के मत रखना.
अगर चाहते हो आसमां की बुलंदियों को छुना,

तो भीड़ में खुद को कभी छिपा के मत रखना."  


Sunday 10 May 2015

अलबेलिया

गोविन्द�
Govind 

प्रीति आज ऑफिस से जल्दी लौट आई थी. आज उसकी वॉलीबाल टीम का
सी-ब्लॉक की टीम से मैच था. वैसे प्रीति पिताजी
को लाने के बाद लगातार खेल नहीं पा रही थी, पर सेटर के रोल में वह बहुत माहिर थी. सी-ब्लॉक की टीम भी जबरदस्त खेलती थी. प्रीति के बगैर खेलना उसकी टीम को रिस्की लग रहा था. प्लेयर्स चाहे कितने भी अच्छे क्यों न हो पर, एक अच्छे सेटर के बिना वे अपना अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकते थे. सभी ने मिन्नतें कर प्रीति को राजी किया था.
कोर्ट की दायीं ओर बनी सिमेंट की बैठक पर पिताजी को बैठाकर वह खुद खेलने चली गई. वहां लोगों की भीड़ जमा थी मैच देखने के लिए. आज मौसम भी कुछ सुहावना था. हल्के बादल आसमान में घिर आए थे. हवा कुछ नमी लिए मन्द-मन्द चल रहीं थी. माहौल कुछ कोलाहलपूर्ण बनता जा रहा था. रेफरी की सिटी के साथ खेल आरम्भ हो गया था. गुरुचरण कोर्ट के अंदर खिलाड़ियों को इधर – उधर भागता देख रह था. कभी उछालते बॉल को निहार रहा था तो कभी रेफरी के अनबुझ इशारों को. उसे न तो खेल और न ही वहां के लोगों की अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी भाषा ही पूरी तरह समझ में आ रही थी. उसे खेलों में बस कबड्डी और फुटबॉल की थोड़ी बहुत समझ थी.
बीच-बीच में लोगों के शोरगुल के साथ उनकी तालियां बजती. गुरुचरण की नज़र कोर्ट के अंदर खेल रही बेटी प्रीति पर टिकी हुई थी. वह बहुत खुश थी और बड़ी चपलता के साथ खेल रही थी. बीच- बीच में बाकी प्लेयर्स एक- दूसरे की हथेलियों पर थपकियां मार जाती. गुरुचरण भाव विभोर होकर सबकुछ देख रहा था. आज उसका मन बड़ा आनन्दित था. खेल जारी था. गुरुचरण की नज़र कोर्ट पर टिकी थी पर, मन पंछी उड़ कर जा बैठा पुरानी यादों की डाली पर......।
प्रीति उनकी सबसे छोटी बेटी थी. तीन बेटियों के बाद बेटे की चाह ने उससे क्या नहीं करवाया था। जोग जाप, मंदिर- मजार से लेकर गुरुद्वारे तक वे माथा टेक आए थे. दान-पुण्य भी खूब किया था, इसलिए नहीं कि स्वर्ग मिले, बल्कि इसलिए कि बस इस बार बेटा हो जाए. बेटा होने पर गांव में मंदिर बनवाने का ऐलान भी कर दिया था. बारह खस्सी काली मां, सात दुर्गे और नौ सूर्य को पहले ही कबूल चुका था, जैसे देवी-देवता बलि या मांसाहार न मिलने के कारण ही उससे नाराज चल रहे हों।
गांवभर में गर्भ लक्षण की विशारद मानी जाने वाली सुखिया चाची ने भी पूरी जांच पड़ताल कर भविष्यवाणी की थी- “गुरु ! इस बार तो पक्का बेटा होगा, सब लक्षण यही कहता है. देखो, बहू इसबार ज्यादा अलसाई है, समय भी ज़्यादा लग रहा है और मीठा खाने की भी खूब इच्छा होती है.” यही नहीं आगे बढ़कर उसने निर्मला के ढ़ोलकीनुमा उभरे पेट पर कान सटा दिए और बोली – ‘देखो ! अंदर बच्चे की उछल कूद भी ज़्यादा है, सब लक्षण बेटा का है’.
जब निर्मला पेट से थी वह उसे लेकर एक बार सदानन्द बाबा के पास भी गया था. उनका छोटा सा आश्रम था. जटाजूट सदानन्द बाबा की कीर्ति चारों दिशाओं में सूर्यकिरण की तरह फैली हुई थी. लोगों का मानना था कि उनके दर्शन से ही सारे मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं.
बाबा पद्मासन लगाए ध्यानमग्न थे. उनके सम्मुख जाकर दोनों विनीत भाव से हाथ जोड़कर बैठ गए. घंटों बाद बाबा का ध्यान पूर्ण हुआ. नेत्र खोलते ही वह पत्नी सहित साष्टांग हो गया. बाबा का हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठ गया था. प्रसन्नचित बाबा बोले – ‘वत्स ! तुम्हारी मनोकामना पूर्ण हो. तुम्हारी पत्नी की कोख में पल रहा अंश तुम्हारे जीवन का सहारा बनेगा’.
प्रीति का जन्म अस्पताल में हुआ था. अस्पताल के वार्ड नंबर 4 में निर्मला भर्ती थी. वह वार्ड के बाहर बने चबूतरे पर बैठा था. बीच - बीच में पत्नी की करुण चित्कार उसके कानों को भेदकर दिल पर वार कर जाती थी. बेचैनी बढ़ती जा रही थी. तभी अंदर से शिशु की क्यां...क्यां...क्यां..... की आवाज उसके कानों में पड़ी. मन भावविभोर हो उठा था. उसने परमपिता परमात्मा को मन ही मन नमन किया. तभी अंदर से आती हुई नर्स बोली, ‘बधाई हो, आपके घर लक्ष्मी आई है’.
पहले पहल तो उसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ. पर, माताजी का लटका मुंह देखकर वह खुद को और अधिक समय तक धोखे में नहीं रख सका. उसका धैर्य जवाब दे गया. उसने दोनों हाथों से अपना माथा पकड़ लिया. सारी मन्नतें, जोग-जाप, लक्षण, भविष्यवाणियाँ निष्फल साबित हुईं. उसे यह दुनिया छलिया लगने लगी थी. आशा के सूर्य को राहु ग्रस चुका था. जीवन में चिरकालीन अंधेरा व्याप गया, जहां रोशनी का प्रवेश असम्भव था. मन में जल रही आशा की लौ बुझ गई थी.
यह ख़बर गांवभर में आग की तरह फैल गई कि गुरचरणा के घर फिर से अलबेलिया (बिना खाद पानी के खुद उगने वाली एक प्रकार की झाड़ी) पैदा हुई है. शुभचिंतकों का मन आहत हुआ, बैरियों के दिलों को ठंडक मिली. लोग घर आकर दिलासा दे जाते. कुछ ज्ञान भरा उपदेश दे जाते, जैसे बहुत बड़े संत अथवा विद्वान हों. जब अपने बीते तब समझ में आए कि उपदेश देना कितना सरल है और उस पर चलना या निभाना कितना मुश्किल.
उसने गौर किया कि लोगों के व्यवहार में भी कुछ बदलाव आने लगा था. राह चलते वे उसे ऐसे देखते मानो उससे कोई बड़ा अपराध हुआ हो. गोतिए की गिद्ध दृष्टि तो उसकी सम्पति पर जम गई थी. गांव में रुतबा धीरे-धीरे जाता रहा. लोग उसपर धौंस जमाने लगे और जब तब नीचा दिखाने के फिराक में लगे रहते. गांवों में सबकी मानसिकता आज भी जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली है. पुत्रहीन को निरीह बनकर जीना पड़ता है क्योंकि उसके पीछे लाठी उठाने वाला कोई नहीं होता.
प्रीति बाकी बहनों से अधिक सुन्दर थी. लोग उसे बहुत पसन्द करते, पर गुरचरणा को वह फूटी आंख भी न सुहाती. उसे उसका चेहरा देखना तक पसन्द न था. वह प्रीति को अपने जीवन का सबसे बड़ा बोझ मान चुका था, जिसे ढो पाना मुश्किल-सा लगता.
समय कहां रुकता है? वह अपनी गति से चलता रहा. प्रीति डगडगाती हुई बड़ी हो रही थी पर, उसका मन पिताजी के लाड प्यार की एक बूंद के लिए भी तरस गया था. बाकि बहनों को तो खूब लाड प्यार मिलता पर, उसे देखते ही न जाने क्यों पिताजी का मन भारी बोझ तले दब जाता. उसने वजह की खोज तो की नहीं पर उसके दिल के किसी कोने में यह बात घर कर गई कि पिताजी उससे नफ़रत करते हैं.
उसने एक दिन मौसी को यह बात बताई तो उसने उसके जन्म की सारी दास्तान सुना दी. उसी दिन से उसने खुद को बदल लिया था. बेटा तो वह बन नहीं सकती थी, पर बेटों वाली जिम्मेदारियों को पूरा करने में उसने अपने-आपको झोंक दिया. उसने खुद को डुबो दिया पढ़ाई में. पढ़ाई ही एकमात्र साधन था, जिसके सहारे वह खुद को बेटों के बराबर साबित कर सकती थी.
एक दिन निर्मला खाना परोसकर सामने बैठी प्रीति के बालों को सहलाते हुए बोली थी – “सुनते हो जी ! कल प्रीति की स्कूल से मैडम आई थी. बोल गई छोटिया पढ़ाई में खूब माहिर है. आगे कुछ जरूर बनेगी.”
“हूंह... इस अलबेलिया को पढ़ाके क्या होगा ?” - उसने बड़ी बेरुखाई से जवाब दिया था.
प्रीति कातर दृष्टि से पिताजी को देख रही थी. हालांकि यह अविश्वास पहली मर्तबा नहीं प्रकट किया गया था. पिताजी के ऐसे कड़वे बोल सुनने की उसे लगभग आदत-सी हो गई थी, पर आज पता नहीं क्यों दिल फटा जा रहा था. उसकी आंखें डबडबा आईं. आंसू गालों से सरकते हुए ज़मीन पर ढरकने लगे थे.
गुरुचरणा ने दांत पीसते हुए कहा था – “रोती क्या हो ? बड़ी दुलारी बनती हो, हटो सामने से.”
वह दौड़कर कमरे में चली गई थी. बिस्तर में मुंह छिपाकर फूट- फूटकर रोई थी. बेटी थी इसलिए बगावत नही कर सकती थी. उसे पंख तो मिले थे पर उड़ने की आज़ादी नही मिली थी. वह युवावस्था के जोश और जुनुन से लबालब भरी थी. वह खूब पढ़ना चाहती थी, आगे बढ़ना चाहती थी और जीवन में कुछ बनकर मां-बाप का सहारा बनना चाहती थी. कुछ करने का जब्बा उसके दिल में कूट कूटकर भरा था. उसके निर्दोष सपने उम्मीदों के पंख फैलाकर असीम गगन में उड़ने को आतुर थे.  दसवीं का रिजल्ट आया तो उसका हौसला और बुलन्द हुआ. वह जिले भर में अव्वल आई थी.
उसे आज भी याद है, क्या बखेड़ा हुआ था कॉलेज के दिनों में दाखिला के समय. वह कॉलेज में दाखिला लेने के लिए अड़ी थी. खाना पीना भी त्याग दिया था उसने. उसका रो-रो कर बुरा हाल था. समाज सहित गांव भर इसके खिलाफ था. सब यही मानते थे कि बेटियां आखिर ज्यादा पढ़ लिख कर क्या करेंगी, आखिर हैं तो पराया धन ही जिन्हें दूसरे के घर ही तो बसना है. स्कूली शिक्षा पूरी हो गई, घर गृहस्थी का हिसाब-किताब तो आ ही जाएगा, बस कन्यादान कर पुण्य कमा लें. उनकी मानसिकता बस यहीं तक पहुँच पाती थी.  बेटियों के लिए एक सीमा रेखा खींच दी गई थी, जिसे तोड़ना असम्भव था. इसी सीमा रेखा ने न जाने कितनी बेटियों के अरमानों के पंख कुतर डाले थे और वे सिसक-सिसक कर जीने को मजबूर थीं.  घर आंगन के सीमित दायरे में रहकर जीना उनकी नियति बन गई थी.
कहते हैं बदलाव प्रकृति का नियम है, तो भला इसे कौन रोक सकता था. अन्न जल त्यागे आज प्रीति का चौथा दिन था. स्थिति नाज़ुक बनती जा रही थी. उसकी दशा दुर्दशा में बदल चुकी थी. शरीर सूख गया था. मुंह से आवाज़ भी निकल नहीं पा रही थी. आंखों से आंसू सूख चुके थे. वह देखने के लिए आने वाले लोगों को सूनी नज़रों से बस टुकुर- टुकुर निहारती. आशाओं के धूमिल होने के साथ जीवन के सूर्यास्त का दृश्य उसकी नजरों के सामने उभरने लगा. खबर मिलते ही अस्सी साल का भोला डंडा के सहारे आया था. अपना झुर्रीदार हाथ सर पर रखकर बोला – “बेटी और पढ़ोगी ?”उसने हामी में बस सर हिलाया था.“हमारी नाक कटाई तो ?”उसने ना में सर हिलाया था.भोला से उसकी दुर्दशा देखी नहीं गई. उसने हांक लगायी – “गुरचरणा ! बिटिया को कॉलेज में दाखिला दिला दो. ऐसे अन्न-जल त्याग कर मरने से भला है कि इसे अपने मन का कुछ करने दो.”
वह खुद जाकर कॉलेज में प्रीति का नामांकन करवा आया था. उसे कॉलेज की ओर से छात्रवृत्ति भी मिल गई थी और हॉस्टल में रहने का इंतजाम भी हो गया था.
लोगों के शोरगुल से उसकी तंद्रा भंग हो गई और वह वर्तमान में लौट आया. प्रीति की टीम मैच जीत चुकी थी. सभी प्लेयर्स ने उसे कंधे पर उठा लिया था.
आज सचमुच प्रीति उनके जीवन का सहारा बन चुकी थी. नौकरी लगते ही वह माता-पिता को अपने पास ले आई थी. वैसे गांव में भी उनका अब कुछ विशेष रहा भी नहीं था. तीन – तीन बेटियों को ब्याहते-ब्याहते वह दिवालिया हो चुका था और पुरखों की सारी सम्पति हवन हो चुकी थी. अभावों के मारे जीवन दुष्कर होता जा रहा था. दो जून की रोटियां जुटाना भी दूभर हो रहा था. ऐसी नाज़ुक स्थिति में उनकी बेटी प्रीति आज अलबेलिया नहीं बल्कि, एक जिम्मेदार संतान बनकर सामने आई थी. आज वह बेटा-बेटी के भेदभाव से बहुत ऊपर उठ चुकी थी. उसकी सफलता गांवभर में चर्चा का विषय बन चुकी थी और लोग अपनी बेटियों को फ़ख़्र के साथ प्रीति जैसी बनने की नसीहत देने लगे थे.
गुरुचरणा को आज सदानन्द बाबा का आशीर्वचन– ‘वत्स! तुम्हारी मनोकामना पूर्ण हो. तुम्हारी पत्नी की कोख में पल रहा अंश तुम्हारे जीवन का सहारा बनेगा’, पूरी तरह से सच जान पड़ा. प्रीति ने सचमुच उसकी मनोकामना पूरी कर दी थी. उसने देखा दूर आसमान में लालिमा और प्रखर हो उठी थी मानो वह भी प्रीति के जीवन में और रोशनी लाना चाहती हो.

समाप्त 
अलबेलिया
अलबेलिया

Saturday 9 May 2015

एक अजनवी


एक अजनवी वीरान इस शहर में 
पल दो पल जी लेने का बहाना ढूँढता है, तन्हाइयों का आलम छंट जाए दिल से जरा, इसलिए हर सूरत में दोस्ती का खजाना ढूंढता है. 

यादों के झरोखों से झांककर देखा गांवों की गलियों में गुज़री अतीत की रेखा, बहुमंजिली इमारत के बंद कमरे में बैठा आज भी वही पूराना घर का अंगना ढूंढता है. एक अजनवी वीरान इस शहर में पल दो पल जी लेने का बहाना ढूँढता है, 

वक्त की नज़ाकत को परख इस कदर बड़े हुए किसी ने गले लगाया कोई था झुकाने को अड़े हुए, भुला गिले शिकवे अब शब्दों का एक प्यारा संसार रचें, इसलिए कमरे के सूनेपन में भी कोई अफ़साना ढूंढता है. एक अजनवी वीरान इस शहर में पल दो पल जी लेने का बहाना ढूँढता है, 

kavita@Govind



Friday 8 May 2015

नेह की डोर


अपनी ओर से
गोविन्द पंडित 


बादल और अमृता की शादी खूब धुम धाम से हुई थी. ऐसी जोड़ी बिरले ही लगती है. दोनो की जोड़ी मानो कामदेव – रती की जोड़ी थी. अमृता का अंग अंग जैसे सांचे में ढ़ली हो. गोरा बदन, सुगठित मुखड़ा, हिरणी शावक सी चंचल नैन, मुखमंडल पे मुस्कान लिए सबको मोहित कर देती. सुंदर ही नहीं वह गुणवती भी थी. हाल ही में बी-टेक की पढ़ाई पूरी की थी.
बादल भी कम कहां था. हट्ठा-कट्ठा सजीला नौजवान. बी-टेक की पढ़ाई पूरी कर दो वर्षों से किसी कम्पनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में कार्यरत था. ऐसी जोड़ी गांव में लग पाना किसी अजूबे से कम नहीं था. दूर दूर के गांवों से लोग जुटे थे इस अनौखी जोड़ी की झलक पाने. बड़े बुजुर्गों ने निष्कपट भाव से इस जोड़ी को आशीष दिये थे.
यह शादी इलाके भर में चर्चा का विषय रहा था. बादल के घरवालों ने भी खूब दरियादिली दिखाई थी. दहेज में फूटी कोड़ी तक नहीं ली थी. भला ऐसी बहू पाकर कौन धन - दौलत की परवाह करे. बादल की शादी के लिए उनके घर कई धन कुवेर भी पहुंच चुके थे. कई भाति से प्रलोभन दिए पर बादल के पिताजी भी पक्के इरादे के इंसान थे. साफ़ कह देते – देखो जी ! धन दौलत तो हाथों का मैल है, इसका आना जाना तो लगा रहता, पर जो चीज जिन्दगी भर की है उससे सौदाबाजी कैसा ?
बादल के पिताजी का गांव में ही अच्छा खासा व्यवसाय था. रूपये पैसों की कमी न थी. समाज में उनके दादाजी का खास दर्जा था. इस शादी से उनकी छाती और चौड़ी हो गई थी.
बादल दिल्ली में जॉब करता था. शादी के कुछ दिनों बाद पत्नी सहित दिल्ली आ गया. जिन्दगी खुशहाल थी. नई नवेली दुल्हन, अच्छा खासा पैकेज, कम्पनी में अच्छा रुतबा और क्या चाहिए. कुछ ही दिनों में अमृता को भी उसी कम्पनी में जॉब दिला दी. अब दोनों का शेड्युल कुछ व्यस्त ज़रूर हो गया था, पर दोनों के बीच प्यार दिन दुना रात चौगुना बढ़ रहा था. दोनों अलग - अलग परिवेश में पले बढ़े थे. शादी के पूर्व एक दूजे को समझने का वक्त भी नहीं मिल पाया था, पर शादी के बाद आपसी समझ बूझ से इस रिश्ते को काफी मजबूत बना लिया था. नए सपने, नई अरमान लिए वे बिन्दास जी रहे थे, न शिकवा, न शिकायत, जी भर जी लेने का मकशद. बादल की आंखों में सपना था – आगे बढ़ने का, कुछ कर दिखाने का.
एक दिन उसने कहा - अमू ! सुन.
अमृता - सुनाइए.
बादल – तू देख लेना, एक दिन मैं इस कम्पनी का सीएमडी बनूंगा.
अमृता – कम्पनी का हो ना हो, पर मेरे दिल का सीएमडी ज़रूर बनेंगे.
बादल – आइ’म रियली सिरियस ! बट, तूझे हमेशा मजाक सूझता है.
अमृता – आइ”म अलसो सिरियस. जाइए जनाब ! जल्दी नहाइए, नश्ता तैयार है. ऑफिस के लिए देर हो रही है.
बादल सरपट बॉथरुम की ओर भागा. दोनों नाश्ता कर ऑफिस के लिए रवाना हो गए.
यूं ही साल भर बीत गया, पता भी न चला.
बादल के माता पिता भी काफी खुश थे. उनकी मनचाही मुराद मानों पूरी हो गई थी. कई देवस्थलों पर माथा टेके,, गंगा स्नान , तीर्थ - व्रत सब किए. बीच बीच में कभी वे दिल्ली आकर बहू - बेटे से मिल जाते. अब उनकी बस एक ही कामना थी, एक नन्हे से मेहमान के आगमन की.
अमृता के पिता जी फौज में थे. लम्बे समय तक फौजीदारी की. अब रिटायर्ड होकर एक कम्पनी ज्वाइन कर लिया था, पर अब भी फौजी मिजाज नहीं बदला था. घरवाले उनसे थर - थर कांपते थे. किसी की क्या मजाल जो उनके सामने मुंह खोल सके. पूरे घर पर तानाशाही शासन था उनका. आस पड़ोस वाले भी उनकी ऐंठी से परेशान रहते. ‘न पत्थर सीझे, न मूढ़ बुझे’ की कहावत को वह पूरी तरह चरितार्थ करता था. कभी - कभी उसने अपने दामाद पर भी अपनी फौजीदारी रौब दिखाने का प्रयास किया, पर बादल उसे इग्नोर करता गया.
अपने दामाद द्वारा इग्नोर किया जाना उसे खटकने लगा. बेटी को बहकाने का प्रयास किया. अमृता को भी पिताजी की ऐसी दखलअंदाजी पसन्द न थी, पर विरोध करने की हिम्मत भी न थी. आज की युवा पीढ़ी लकीर के फकीर नहीं होते. उनकी सोच, नज़रिए काफी परिपक्व होते है. स्वाभिमान के साथ जीना -  मरना चाहते हैं. ऐसे में किसी की अनावश्यक दखलअंदाजी उसे बर्दास्त कहां ? चाहे वे अपने ही क्यों न हो.
एक दिन अमृता के पिता जी ने शराब के नशे में दामाद को फोन किया. उसे धमकियां देने का प्रयास किया. पर, बादल भी स्वाभिमानी था. उसे आड़े हाथ लिया. खूब सुनाया और दौबारा ऐसी औछी हरकत न करने तक की हिदायत दे डाली. बेचारी अमृता ससुर दामाद के भयंकर वाक्युद्ध से थर - थर कांप रही थी. मर्दों की क्या मुछों की ताव, रिश्तों में मधुरता तो आखिर औरतें ही लाती हैं.
अमृता पिताजी के स्वभाव से वाकिफ थी,. उसे समझाना यमराज के मुख से वापस लौटने के बराबर था. पति को ही समझाना उचित जंचा. बोली – बाबूजी ऐसे ही हैं, उनसे आपको नहीं उलझना चाहिए.
बादल (गुस्से में) – मैं....मैं.....उलझ रहा था. ? उनकी लेंगवेज नहीं देखी. दामाद से ऐसी लेंगवेज में बात करनी चाहिए ?
अमृता गिड़गिड़ाई – प्लीज बादल ! समझने का प्रयास करो. वो आदत से लाचार हैं. आप समझदार हो.
उसी समय अमृता के मोबाइल पर कॉल आया. पिताजी ने उसे शीघ्र अपने पास आने को कहा. अमृता की मां ने उसे काफी समझाने का प्रयास किया. पर उसके सामने किसी की एक न चलती. वह बिस्तर पर जाकर फूट - फूटकर रोने लगी. उसे अपने पति का स्वभाव पता था. अमृता की दुविधा और बढ़ गई. एक बार ख्याल आया पिताजी से उलझ लूं , पर हिम्मत जवाब दे गई.
बादल से कहा – पिताजी का कॉल आया था. कुछ दिनों के लिए मुझे बुलाए हैं.
बादल – क्यों ?
अमृता – पता नहीं.
बादल – चली जाओ. बेटी उसी की है, मैं कौन हूं ?
अमृता खिझती हुई – बादल ! आप समझने का प्रयास क्यों नहीं करते ? मैं परिस्थिति को सुलझाने का प्रयास कर रही हूं और एक आप हो, जिद्दी बने हुए हो.
बादल (गुस्से से) – हां, मैं जिद्दी हूं और तुम खूब समझदार हो, आखिर बेटी उसी की है, कुछ तो असर पड़ेगा ही.
यह बात अमृता को चुभ गई. औरतें भूख सह लेगी, सारे दुखों को सह लेगी पर अपने पुरखों की निंदा सह नहीं सकती. आखों से आसूं की धार बहने लगी.
बोली – क्या कहते हो ?
बादल – मैं कौन होता हूं तुम्हें रोकने वाला. जो मर्जी करो.
बादल से उसे ऐसी उम्मीद न थी. कुछ पल के लिए ठिठक गई. फिर कुछ विचार कर सामान समेटा. बादल से बोली – अपना ख्याल रखना, बाबूजी गुस्से में है, समझाकर जल्दी लौट आऊंगी. मेरी लीव डाल देना.
बादल के पांव छूकर चल पड़ी.
अमृता बाबूजी के पास पहुंच तो गई, पर उनके गुस्से को देखकर सप्ताहभर इस बारे में बात करने की उसे हिम्मत न हुई. वक्त गुजरता गया. इधर बादल भी दम्भ लिए बैठा था, खुद गई है, खुद ही आएगी. उससे एक बार भी सम्पर्क करने की जरुरत नही समझी. ऊपर से भले ही दम्भ लिए था, पर मन ही मन खूब पछतावा हो रहा था. खुद पर उसे खीझ आ रही थी. आखिर इसमें अमृता क क्या दोष. मैनें नाहक उसका दिल दुखाया.
उधर अमृता के पिताजी को भी खुद को सही साबित करने का अच्छा मौक मिल गया. कहा – देख लिया कितना दम्भी है. तू कहती थी तुझसे खूब प्यार करता है, अब तक एकबार हाल तक नहीं पूछा. सब छलावा है, सब दिखावा है उसका.
अमृता निरुत्तर होकर रह गई. उसे भी बादल की इस कठोरता से गुस्सा आने लगा था. दिन गुजरते गए पर, न बादल ने अमृता की खोज ली और न अमृता ने उसकी. इसी तरह साल भर गुजरने को चला. धीरे धीरे अमृता के जीवन में सौरभ क आगमन हुआ. दिखने में वह सुंदर, सजीला था. खास यह थी कि सौरभ उनके पिताजी के एक दोस्त का बेटा था. अमेरिका से पढ़कर वापस आया था. दोनों के बीच घनिष्टता बढ़ने लगी. अमृता के पिताजी भी कुछ ऐसा ही चाहते थे. कुछ ही दिनों में दोनों विवाह के लिए तैयार हो गए. समस्या एक थी. बादल से तलाक की.
तलाक का पेपर एकदिन बादल के पास पहुंच गया. पेपर देखते ही बादल के पांव तले जमीन खिसक गई. उसकी दशा व्याधी के तीर से घायल होकर जमीन पर गिरे पक्षी की तरह हो गई. वह आत्मग्लानि से भर गया. आंखों से आंसू हिलोरें लेने लगे. मुख से शब्द नहीं फुटते. अपने मां - बाप के साथ अमृता के घर पहुंच गया. क्षमा याचना की. खूब गिड़गिड़ाया, अपने प्यार की दुहाई दी. उनके मां - बाप ने भी खूब मिन्नतें लगाई, पर सब व्यर्थ.
अमृता बस इतना बोली – आइ’म सॉरी ! इट्स सो लेट.
और वह घर के अंदर चली गई.
लाचार होकर वे तीनों वापस आ गए. घर की सारी खुशियां लूट चुकी थी. घर पर शमशान सा सन्नाटा पसर गया था. किसी को न खाने की सुध रहती और न जीने की. बादल अंदर ही अंदर घुट रहा था. इस दशा के लिए वह खुद को दोषी मान चुका था. अपनी घुटन से कहीं ज्यादा उसे अपने मां - बाप की घुटन खलती. क्या सपने थे, क्या अरमान बुने थे, सबको मानों सांप सुंघ गया हो.
अगले दिन तलाक था. दोनों पक्षों को कोर्ट में पहुंचना था. अमृता की सहेली नीतु आई थी उससे मिलने. अमृता ने बड़ी लापरवाही से कहा – यार नीतु ! कल बादल से मेरा तलाक है. चल अच्छा ही हुआ, उससे कहीं हैंडसम, रीच लड़का से शादी करने जा रही हूं.
नीतु यह सुनकर अवाक रह गई. बोली – अमू ! तू तो कहती थी बादल तुमसे बहुत प्यार करता है, तो फिर अचानक....?
नीलम की बात बीच में ही काटते हुए वह बोली – छोड़ यार ! गड़े हुए मुर्दे क्यों उखाड़ना चाह रही है. पापा से कुछ अनबन हुआ था, तो बात यहां तक आ पहुंची. खैर, सौरभ भी रईस घराने से है.
नीतु उनके पिताजी के स्वभाव से भलीभांति परिचित थी. मसला समझने में उसे देर न लगी. दोस्त के नाते उसे एकबार समझाना उचित जंचा. वह बोली – अमू ! तू अब बच्ची नहीं रहीं. खुद का भला - बुरा समझ सकती है. शादी -  विवाह गुड्डे - गुड्डियों का खेल नहीं है, जिसे जब चाहो बदल डालो. जन्म – जन्मांतर तक निभाने वाला पावन रिश्ता है यह. एक बार जिससे नेह की डोर जुड़ जाती है, उसे तोड़ी नहीं जाती, प्यार और समर्पण से मजबूत बनाई जाती है. रही बात सौरभ की तो क्या गारंटी है कि वो तुम्हें खूब प्यार करेगा, खुश रखेगा. कल यदि उससे तेरे बाप की नहीं बनी तो क्या तुम दूसरा सौरभ ढूढ़ोगी ? बताओ ? जवाब दो ? देख, पागल मत बन, बादल का दिल टटोल के देख, क्या अब भी वो तुम्हें उतना ही प्यार करता है. नेह की डोर मत तोड़ो, जीवन तबाह हो जाएगा.
नीतु तो चली गई, पर उनकी बातें अमृता को अंदर तक झकझोर डाली. कानों में नीतु की बात बार – बार गूंजने लगी.- ‘नेह की डोर मत तोड़ो.’ बादल का गिड़गिड़ाता हुआ चेहरा उनकी आंखों के सामने बार – बार आने लगा. वह जानती थी कि आज भी बादल उसे उतना ही प्यार करता है. अमृता मानो सपने से जग गई. उसे खुद से नफ़रत होने लगी. बादल के लिए प्यार का सैलाब उमड़ पड़ा दिल में. जी करता उड़ कर चली जाऊं बादल के पास, पर कुछ बंदिशें जकड़ लेती बेड़ी बनकर.
सुबह पिताजी से बोली – पापा ! तलाक से पहले मुझे कुछ दिन सोचने - समझने का समय दीजिए.
पिताजी – पागल हो गई हो क्या ? सौरभ के घर शादी की पूरी तैयारी हो गई है, डेट फिक्स है. दो दिन बाद तू महलों की रानी बन जाओगी, और क्या चाहिए. चलो जल्दी, कोर्ट के लिए तैयार हो जाओ.
अमृता की बेचैनी बढ़ने लगी. वह पूरी तरह भावनाओं की भंवर में फंस चुकी थी. इसके लिए वह खुद जिम्मेदार थी. आखिर सौरभ से शादी के लिए उसने खुद हामी भरी थी. तलाक के लिए भी हामी भरी थी. चाहती तो बादल के पास बेहिचक वापस जा सकती थी. लेकिन, अब पानी गले से ऊपर चढ़ गया था. केवल डुबना शेष था.
कोर्ट में बादल की एक झलक ही मिल सकी. सबका चेहरा मुर्झाया था, मानो हरी फसल पर ओलापात हो गया हो. तुरंत पिताजी ने ओझल कर दिया था उनकी नज़रों से. वह बार - बार कहती रही कि मुझे सोचने - समझने का कुछ वक्त चाहिए पर, उनके पिताजी ने यहां जबरन उससे तलाक के कागज़ातों पर हस्ताक्षर ले लिए. कुछ भी उलटा सीधा न करने की सख्त हिदायत भी दे डाली.
दोनों पक्ष जज के सामने उपस्थित थे. बादल व उनके परिवार वालों की दशा जुए में अपना सर्वस्व हारे हुए जुआरी की तरह थी. अब भी उनके मन में अमृता को वापस पाने की उत्कंठ लालसा थी. सबकी आंखें डबडबाई हुई थी. मन क्रंदन कर रहा था. बादल की दशा ओर भी दयनीय थी. मन कलप रहा था. अमृता की ओर तृषित नेत्रों से देखा. दिल करता जज से गुहार लगाऊं मुझे अमृता वापस लौटा दीजिए जज साहब. इसके बगैर मैं जी नहीं सकता. पर, वाणी जवाब दे जाती.
जज साहब ने पहले बादल से इजहार लिया. पूछा – क्या आप स्वेच्छा से अमृता से तलाक चाहते हैं ?
अमृता की ओर करुण भाव से देखा, फिर बोला – जी हां. और आगे कुछ न कह सका. आंखों से झर - झर आंसू गिर रहे थे. उनकी हालात बयां कर रही थी कि वह स्वेच्छा से नहीं बल्कि मजबूरन तलाक ले रहा है.
जज साहब ने अमृता से इजहार चाहा – आप भी स्वेच्छा से तलाक चाहते हैं ?
अमृता का धैर्य का बांध टूट गया. अब रहा नहीं गया. पल भर की बात, किसी की जिन्दगी उजड़ेगी तो किसी के दम्भ का विजय होगा. उसके मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे. बार - बार बादल की ओर निहार रही थी, बादल सिर झुकाए खड़ा था. कुछ पल तक जवाब न पाकर जज साहब ने पुनः प्रश्न दोहराया. बादल ने हिम्मत जुटाकर सर ऊपर उठाया. आखिरी बार अमृता की ओर देखने का प्रयास किया. वह पहले से ही उसपर नज़र टिकाई हुई थी. दोनों की आंखें सजल थी. आंखों से आंसू बह रहे थे. आंसू के साथ गिले - सिकवे धुल गए. आंखों की करुण पुकार सुनकर अमृता बेसुध दौड़ पड़ी. आकर बादल के गले से लिपटकर खूब रोई. बादल भी रो रहा था. उन दोनों की दशा देखकर बाकि लोगों की भी आंखों से आंसू छलक पड़े. नेह की डोर टूटने से बच गई. अमृता के पिताजी वहां से तुनक कर चल दिए.   


समाप्त